विशेष

जिंदगी

       जिंदगी जिंदगी फूल- सी है, कुदरत की गोद में खिलती है, मुस्कराती है, खुशबू से फिजा को महकाती है, और एक दिन बिखरकर, बसुन्धरा की ग...

Monday, January 9, 2023

अरण्य

कुल्हाडी बज रही है ,
कहीं दूर ।
अरण्य में फड़फड़ाते हैं ,
पक्षी, पिक, सारंग,मयूर ।
चौककर उदग्रीव शावक हिरणें देखती हैं घूर।
सोचतीं ,
आज का मानव कैसा हो गया क्रूर ।
पेड़ काटने में अपने को समझता है शूर ,
हाय ,हम क्या करें?
आज नहीं ,
वह कल रोयेगा बिसूर- बिसूर ॥

प्रज्ञा अपराध

किसे नहीं पता ?
पृथ्वी में कार्बनडाई आक्साइड की मात्रा 
निज कृत्य से 
नित्य बढ़ रही है ,
तापमान बढ़ रहा है
जलवायु में परिवर्तन हो  रहा है ।
कहीं अकाल , कहीं बाढ़
कहीं तूफान , कहीं सुनामी
जीना कठिन हो रहा है ।
फिर भी अपने को ज्ञानी कहलाने वाला मनुष्य
अभी भी नहीं चेत रहा
परिवेश को किसी न किसी बहाने
अपने कर्मों से विनाश की ओर झोंक रहा है ।
वनों को काटना
पहाड़ों को तोड़ना ,  
बड़े - बड़े बांध बनाना 
ऊचे - ऊचे भवन बनाना 
 शहरों से गन्दी नालियों एवं कारखानों से
निकला गंदा पानी को नदियों में छोड़ना ,
निर्मल जल को प्रदूषित करना। 
चिमनियों  से निकलता धुआं
खेती में कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग,
वातानुकूलन हेतु एसी का बढ़ता प्रयोग ,
वाहनों से निकला हुआ धुआँ ,
खुले में कचड़ों को जलाना ,
दिन-प्रतिदिन बढ़ता प्रदूषण ,
जीवों के लिए खतरा बनता जा रहा है ,
साँसों की बीमारी बढ़ा रहीं हैं,
मनुष्यों की सेहत बिगाड़ रही है ,
जीवों का जीवन संकट में है , 
जीव विलुप्त हो रहे हैं। 
मनुष्य इनसे विज्ञ है ,
किन्तु प्रज्ञा अपराध करता जा रहा है।  

अपने अहं की तृप्ति के लिए युध्द करना ,
युध्द में अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग ,
विनाशकारी बमों से हमला करना ,
यह सबकुछ पर्यावरण के दुश्मन ही तो हैं।  
ख़ुशी के दिन हों या तीज - त्यौहार,
नववर्ष हो ,जीत की खुशी हो , 
खुशियाँ बांटने की जगह
बारूद का धुआं बाँटना ,
यह कब तक चलेगा ,
इसका अंत निकट है। 

ऐ प्रज्ञावान मनुष्य चेतो ,
अपने कृत्य से सुन्दर धरा को 
नरक मत बनाओ ,
मौत का कुआँ मत बनाओ ,
अभी भी वक्त है ,सम्हल जाओ , 
पेड़ लगाओ,
सुगन्धित औषधियुक्त दृव्यों का हवन करो,
बंद करो आपस में लड़ना, 
बमों  का प्रयोग,
बारूद से परहेज करो ,
पृकृति से प्यार करो ,
धरती को हरियाली से सजाओ ,
धरती के अस्तित्व के साथ ही तुम्हारा अस्तित्व है ,
जागो , नहीं मिट जाओगे।





Friday, September 7, 2018

मृत्यु

मृत्यु आत्मोत्सव है।  
उसके आलिंगन से क्या डरना ?  
जीवन के रण में निर्भय होकर ,
कर्म-पथ पर  आगे बढ़ते रहना। 

प्रकृति के कण-कण में गुम्फित है ,
जय-पराजय की संघर्षी गाथा।
जो संघर्ष करता है वही, 
 विजय श्री को  वरण कर  पाता। 

कानन में मृग सतर्क किन्तु निर्भय 
चरते ,कुलाँचे भरते, विचरण करते हैं।  
आसमान पर नाना विहग, ऊँचाई मापते  ,
मैदानों से दुर्गम हिमालय तक 
बिना थके, बिना डरे , उल्लास से उड़ानें भरते हैं।

इस धरती पर जो भी आया, 
उसका जाना निश्चित है।  
इस कडुवे सच से 
क्या कोई  वचित है ? 

उठो , बढ़ो आगे मंजिल है ,
मृत्यु भय से कदम न पीछे करना,
मृत्यु आत्मोत्सव है ,
उसके आलिंगन से क्या डरना ?


 


Friday, March 23, 2018

यह कैसा आनंद (व्यंग्य रचना )

व्यंग्य रचना 
यह कैसा आनंद
यदि आनन्द पूछना है तो उनसे पूछिए जो पीठ पीछे बुराई करते हैं । पीठ पीछे बुराई का  मजा ही कुछ और होता है। चटकारे मारते हुए बखिया उखाड़ने की कला में माहिर जन को कभी बोर नही होना पड़ता। उनका वदन अलग ही दिखाई पड़ता है। चेहरे पर विद्रूप हँसी हमेशा विद्यमान रहती है। ये जब तक निंदा के शतक नहीं लगा लेते विश्राम नहीं करते।
ये यदि बुझे से दिखें तुरन्त इन्हें निंदा शक्तिवर्धक अवलेह चटा दें। जैसे ही आप चटाएंगे वैसे ही ये हरे- भरे हो जाएँगे। चेहरे पर वही चमक लौट आती है जो पहले थी।
आज ऐसे लोग बिरले ही होंगे जो यह कहकर उनकी निंदा को खुजलादेते होंगे कि कुत्ते भौंकते रहते हैं हाथी अपनी चाल चलता रहता है। अपनी निंदा अपने सामने सुनने का साहस बिरले में  होता है
कबीर ने निंदक को अपने पास आँगन- कुटी बनवाकर रखने को कहा है। उन्होंने कहा-
निंदक नियरे राखिए आँगन- कुटी छवाय।
बिन पानी साबुना, निर्मल करै सुभाय।।
यदि निंदा बुरी चीज होती, निंदक बुरे होते तो एक संत उन्हें क्यों अपने साथ रखने के लिए कहता।

Thursday, February 16, 2017

गरबा

गुजरात की पहचान है गरबा ,
लोकगीत की शान है गरबा 
नृत्य की जान है गरबा 
मन मुग्ध कारी नृत्यगान है गरबा । 

प्रेरक

कर्म 

जन्म सब लेते हैं,
कर्म भी सब करते हैं ,
किन्तु कुछ खास होते हैं ,
जो अपने कर्मों से
इतिहास बनाया करते हैं । 


कर्म-पथ 

कर्म पथ सरल नहीं,
यह मैंने अनुभव से सीखा है ,
शिक्षा-जगत की फुलवारी को 
मैंने अपने श्रम-सीकर से सींचा है । 
उम्र नहीं बाधा मेरे कर्म-पथ की ,
मंजिल को मैनें मुट्ठी में मींचा है । 

सोच 

जिंदगी का यह है तजुर्बा 
सोच से जीत और हार होती है ,
यह भी सच है ,
जिनकी सोच होती है ऊँची 
उन्हीं के गले में जीत की हार होती है । 

शिक्षक

दीपक सा कर्म है जिनका
माँ की जिनमें ऋजुता है,
सागर-सा विशाल हृदय जिनका
पिता की सहृदयता है ।
पीढ़ियों को पढ़ाया जिनने
अब भी जो कर्म-निरत हैं ।
ऐसे गुरुवर को संग पाकर
मन-मयूर हर्षित-पुलकित है ।